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नहीं रही भरथरी की प्रख्यात गायिका सुरुजबाई खांडे, शनिवार को सुबह हृदयाघात से निधन हो गया

इस चिंता के साथ छत्तीसगढ़ की सुरुज विदा हुईं कि भरथरी की कला को अब आगे बढ़ाएगा कौन 
जीवनभर कहती रहीं- चाय-पानी पिलाने की नौकरी तो मिली पर कला मर गई, छुट्‌टी देनी न पड़े इसलिए चिट्‌ठी फाड़ देते थे।

भरथरी की प्रख्यात गायिका सुरुजबाई खांडे का शनिवार को सुबह हृदयाघात से निधन हो गया। 69 वर्ष की सुरुज बाई ने सोवियत रूस समेत कई देशों और भारत के अधिकांश राज्यों में दशकों तक भरथरी की प्रस्तुतियां दीं। वे 1986-87 में सोवियत रूस में हुए भारत महोत्सव का हिस्सा बनीं थीं। उनके निधन से बिलासपुर समेत पूरे प्रदेश के लोककलाकारों में शोक की लहर है। उनका अंतिम संस्कार शनिवार को सरकंडा में किया गया।
इस चिंता के साथ छत्तीसगढ़ की सुरुज विदा हुईं कि भरथरी की कला को अब आगे बढ़ाएगा कौन
जीवनभर कहती रहीं- चाय-पानी पिलाने की नौकरी तो मिली पर कला मर गई, छुट्‌टी देनी न पड़े इसलिए चिट्‌ठी फाड़ देते थे।

अंतिम दिनों में भी रोजाना ठीक वैसे ही सजती थीं, जैसे उन्हें किसी मंच पर भरथरी पेश करने जाना हो 

जन्म: 12 जून 1949 (बिलासपुर)
मृत्यु: 10 मार्च 2018

बिलासपुर से लगे गांव बहतराई के एक मामूली से मकान में रहने वाली सुरुज बाई अपने अंतिम दिनों में भी रोजाना ठीक वैसे ही सजती थीं, जैसे उन्हें किसी मंच पर भरथरी पेश करने जाना हो। पुतरी, बहुंटा, नागमोरी, चुरी, पटा, करधन, बछिया और तोड़ा-पैरी समेत तमाम छत्तीसगढ़ आभूषणों से लदी रहती थीं। उनकी सबसे बड़ी चिंता उनके साथ ही चली गई। वह ये कि उनके बाद भरथरी को आगे कौन बढ़ाएगा?

महिला दिवस पर दैनिक भास्कर से सुरुज बाई ने जो कहा-पढ़िए उन्हीं की जुबानी

मेरे नाना रामसाय धृतलहरे गांवों में भरथरी गाते थे। उन्होंने ही मुझे भरथरी सिखाया। फिर ढोला-मारु, चंदैनी और आल्हा उदल गाने लगी। भरथरी राजा विक्रमादित्य के भाई, उज्जैन के राजा थे। यह दुखों की कथा है। शादी के बाद बिलासपुर आई और कुदुदंड में रहने लगी। शुरुआत में इप्टा ने एक कार्यक्रम में मौका दिया, जिसमें सत्यजीत रे और अभिनेता एके हंगल आए थे। तब एक कार्यक्रम के छह आने मिलते थे। आज गायकों को गाते सुनती हूं तो दुख लगता है। लगता है मेरे मरने के बाद कोई भरथरी गाने वाला नहीं रहेगा।
अब तक गायक शराब पीकर ददरिया और करमा गाते हैं। भिलाई की कुमारी वंदना और भोपाल में द्वारिका मैंने भरथरी सिखाई, लेकिन अब वे गा रहे हैं या नहीं, यह नहीं पता। विदेश जाने तक का मौका मिला। बिलासपुर और छत्तीसगढ़ में कलाकारों का सम्मान नहीं है। यहां तो बुलाकर भी रुपए नहीं देते। एसईसीएल ने मुझे चाय-पानी पिलाने की नौकरी दी लेकिन कार्यक्रम में जाने के लिए मुझे छुट्टी नहीं मिलती थी। खाना-पीना हराम हो गया था। कहते थे चाय बनाओ, पानी लाओ, डाक बांटो। बाहर से आने वाले कार्यक्रमों के आमंत्रण की जानकारी नहीं देते। पत्र फाड़कर फेंक देते थे। यह सब इसलिए कि छुट्टी न देनी पड़े। रोजी-रोटी तो दी, लेकिन कला को मार दिया। मेरे जीवन में दुख ही दुख हैं।

दुख ही दुख है जीवन में 

मेरे जीवन में दुख ही दुख है। मेरे अपने दो बेटे थे। पति ने दूसरी शादी की। वे मोपका में रहते हैं। मैं यहां अकेले रहती हूं। अकेले जिंदगी काटना बहुत मुश्किल है। बेटों को याद कर रोती हूं। बेटों को याद कर अकेले जिंदगी काट रही हूं। अब तो खाने-पीने की भी समस्या है। जब तक मां-बाप जिंदा थे, अलग बात थी। अब खाने-पीने की भी समस्या है। और लोगों को भरथरी सिखाकर क्या करूंगी। मैं तो बुजुर्ग हो गई। किसी तरह जी रही हूं।

मजदूरी कर घर लौटने के बाद जब अलाप लगाती थी तो लोग पगली कहते थे 

महज 11 साल की उम्र में शादी के बाद सुरुज बाई पौंसरी-सरगांव से ससुराल कछार आ गईं। दो बेटे हुए। दवा-पानी के अभाव में उनकी असमय ही मौत हो गई। मजदूरी की तलाश में पति लखन के साथ बिलासपुर आ गईं। पति भी भरथरी के अभ्यास में उनका पूरा साथ देते थे, लेकिन दोनों के पास अवसर और पैसों की कमी थी। दोनों रोज मालधक्का जाते थे। वहां बड़ी-बड़ी नमक-गेहूं की बोरियां, तेल के पीपे उठाते थे और ठेले खींचते थे। शाम को सुरुज बाई थकी-हारी घर पहुंचती थीं, तब पूरे आलाप में भरथरी गाना शुरू कर देतीं। परेशान मोहल्लेवाले उसे 'पगली' कहने लगे थे।

शहर के लोक कलाकार जवाहर बघेल सुरूजबाई को पहली बार मंच दिलवाया। 1985 के विधानसभा चुनाव में पूर्व मंत्री बीआर यादव ने प्रचार का जिम्मा दिया और इसके एवज में उन्हें कुछ पैसे भी मिले। बाद में पूर्व मंत्री की सिफारिश पर ही उन्हें एसईसीएल में नौकरी मिली, वह भी पानी पिलाने की। कुछ साल पहले एक हादसे में घायल हुईं तो उन्होंने सेवानिवृत्ति ले ली।

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सौजन्य : दैनिक भास्कर


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