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छत्तीसगढ़ी फिल्म : घर द्वार (1965-71) द्वितीय ऐतिहासिक छत्तीसगढ़ी फिल्म

Ghar Dwar Chhattisgarhi Movie 1965-71

छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले भावना प्रधान और फिल्मों के जबरदस्त शौक़ीन स्व.विजय कुमार पाण्डेय ने 'छत्तीसगढ़ के टूटते परिवार की कहानी' को लेकर सन् 1965 में 'घर द्वार' बनाने का संकल्प लिया था। स्व.विजय कुमार पाण्डेय का जन्म 23 दिसम्बर 1944 को भनपुरी के मालगुजार स्व.विक्रमादित्य पाण्डेय के घर हुआ था। उस समय भनपुरी को रायपुर से लगा गाँव माना जाता था। अब तो यह रायपुर की सीमा में शामिल हो गया है। स्व.विजय पाण्डेय 'घर द्वार' बनाने मुम्बई (उस समय बम्बई हुआ करती थी) से पूरी टीम लेकर छत्तीसगढ़ आए। मुम्बई के नामचीन कलाकारों कानन मोहन, रंजीता ठाकुर एवं दुलारी ने 'घर द्वार' में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई। छत्तीसगढ़ के कलाकारों जफर अली फरिश्ता, बल्लू रिजवी, बसंत दीवान, श्रीमती नीलू मेघ, भगवती दीक्षित, भास्कर काठोटे, श्रीराम कालेले, यशवंत गोविंद जोगलेकर, रामकुमार तिवारी, परवीन नील अहमद, ठाकुर दास आहूजा एवं शिवकुमार दीपक ने भी 'घर द्वार' में अहम् भूमिकाएं अदा की। फिल्म 35 एम एम श्वेत-श्याम (ब्लेक एण्ड व्हाईट) 1971 में रिलीज हुई थी।

फिल्म का कथानक
स्व.श्री विजय पांडेय

दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘घर द्वार’ मूलतः पारिवारिक कहानी पर आधारित है। फिल्म के निर्माता स्व.श्री विजय कुमार पांडेय के यशस्वी पुत्र श्री जयप्रकाश पांडेय और इस फिल्म का अहम हिस्सा रहे आज के वयोवृद्ध कलाकार श्री शिवकुमार दीपक द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार मुख्य किरदारों में दुलारी बाई (मां), कान मोहन (बड़ा भाई),रंजीता ठाकुर (बड़े भाई की पत्नी), जफर अली फरिश्ता (छोटा भाई), गीता कौशल (छोटे भाई की पत्नी), बसंत दीवान (मुनीम), इकबाल अहमद रिजवी (दलाल)और शिवकुमार दीपक (छोटे भाई की पत्नी का मामा) शामिल हैं। इसके अलावा सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि खुद स्व.श्री विजय पांडेय ने इस फिल्म में रायपुर के सेठ की संक्षिप्त भूमिका की है

कहानी के अनुसार केंद्रीय भूमिका के दोनों भाइयों के बचपन में ही पिता का देहांत हो जाता है। उनकी मां मेहनत-मशक्कत करके दोनों बेटों को जवान करती है। बड़ा बेटा खेती-किसानी और घरेलु जिम्मेदारियों के बीच अपना जीवन निर्वहन करता है। बड़ा भाई और मां मिलकर छोटे भाई को पढऩे शहर (रायपुर) भेजते हैं। यहां से पढ़ कर लौटा छोटा बेटा शहरी गलत संगतों की वजह से घर में कलह की वजह बनता है। वह शहर से ही विवाह करके गांव लौटता है, उसकी पत्नी के साथ पत्नी का धूर्त मामा भी साथ आता है। परिस्थितियां ऐसी बनती है कि घरेलु कलह के चलते बदहाली के दिन आ जाते हैं। इसी बीच मां भी दुनिया छोड़ जाती है। बड़ा भाई अपनी पत्नी को लेकर शहर आ जाता है और रिक्शा चलाकर पाई-पाई जोड़ता है। यहां उसकी मुलाकात एक सह्रदयी दानी सेठ से होती है, जो उसके पिता का पुराना दोस्त है। यह सेठ उसे सहारा देता है। कहानी नया मोड़ लेती है और गांव का पैतृक घर नीलाम होने को है। ऐसे में सेठ इस बड़े भाई को लेकर गांव पहुंचता है और आखिरी बोली खुद लगाते हुए घर को खरीदकर दोनों भाइयों को सौंप कर लौट जाता है।
पात्र 

‘घर द्वार’ फिल्म एक हद तक महबूब प्रोडक्शन की ‘मदर इंडिया’ से भी प्रभावित थी। जिसमें मां की भूमिका में उस वक्त बंबईया सिनेमा में स्थापित हो चुकी और सर्वाधिक व्यस्त कलाकार दुलारी बाई को लिया गया। बड़े बेटे की भूमिका निभाई ‘कहि देबे संदेस’ में नायक रह चुके कान मोहन ने और छोटे बेटे की भूमिका मिली उन दिनों रायपुर से बंबई जाकर अपनी पहचान बनाने संघर्ष कर रहे जफर अली फरिश्ता को। श्री फरिश्ता हालांकि बंबईया सिनेमा जगत में नायक के तौर पर स्थापित नहीं हो पाए, बाद में वह कुछ हिंदी फिल्मों के निर्माण से जुड़े रहे। फिल्म की नायिकाएं थी रंजीता ठाकुर और गीता कौशल थीं। साथ ही फिल्म में आज के कांग्रेसी नेता इकबाल अहमद रिजवी, कवियित्री नीलू मेघ के अलावा भगवती दीक्षित, भास्कर काठोटे, यशवंत गोविंद जोगलेकर, रामकुमार तिवारी, परवीन अहमद और ठाकुर दास आहूजा की भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं थी।

फिल्म निर्माण 

सरायपाली राजमहल में हुई शूटिंग


फिल्म की शूटिंग के संबंध में श्रीमती पांडेय ने बताया कि श्री पांडेय के लिए ‘घर द्वार’ एक महत्वकांक्षी फिल्म थी। इसलिए उन्होंने तकनीकी पक्ष के सारे विशेषज्ञ और सारे मुख्य कलाकार बंबई से बुलाए। फिल्म की मुख्य शूटिंग सरायपाली राजमहल में हुई। यहां पूरे डेढ़ साल तक अलग-अलग शेड्यूल में हुई तबतक बंबई की टीम रूकी रही। श्रीमती पांडेय के मुताबिक सरायपाली राजा श्री महेंद्र बहादुर सिंह ने भरपूर सहयोग और समर्थन दिया। राजा साहब ने अपना पूरा महल (पूजा घर को छोडक़र) फिल्म ‘घर द्वार’ के लिए समर्पित कर दिया। चूंकि पूरी यूनिट का सारा खर्च स्व. पांडेय ही उठा रहे थे, इसलिए उनके परिवार की जवाबदारी थी हर एक सदस्य की हर जरूरत का ध्यान रखना। श्रीमती पांडेय के मुताबिक ब्राह्मण होने की वजह से जब कभी यूनिट के लिए मांसाहारी भोजन बनता था तो श्री पांडेय अपने परिवार सहित यूनिट के दूसरे शाकाहारी लोगों को लेकर अलग बाड़े में चले जाते थे।
फिल्म का संगीत 
थियेट्रिकल पोस्टर

किशोर गाने वाले थे “गोंदा फुल गे…”

फिल्म से जुड़ी हुई यादें बांटते हुए श्रीमती चंद्रकली पांडेय ने बताया कि उनका फिल्म के गीतों की रिकार्डिंग के दौरान बंबई जाना नहीं हुआ था। वह सिर्फ शूटिंग की ही साक्षी रही हैं। स्व. पांडेय से सुनी हुई बातों के आधार पर श्रीमती पांडेय ने बताया कि 1965-67 का दौर ऐसा था जब लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी में अबोला चल रहा था। ऐसे में हम लोग चाह कर भी दोनों की आवाज में ‘सुन-सुन मोर मया पीरा के ’ और ‘आज अधरतिया’ जैसे युगल गीत नहीं रिकार्ड करवा पाए। तब सुमन कल्याणपुर की एकमात्र विकल्प थी,लिहाजा उन्होंने ही रफी साहब का साथ दिया। श्रीमती पांडेय के मुताबिक फिल्म का सबसे चर्चित गीत ‘गोंदा फुलगे मोर राजा’ पहले किशोर कुमार की आवाज में रिकार्ड किया जाना था। इसके लिए किशोर कुमार से अनुबंध भी हुआ था लेकिन ऐन वक्त पर किशोर कुमार का विदेश में प्रोग्राम तय हो गया, संभवत: मधुबाला के इलाज के सिलसिले में। ऐसे में संगीतकार जमाल सेन ने रफी साहब को यह धुन सुनाई तो उन्होंने इस गीत को गाने का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया।

प्रचार और फिल्म रिलीज

दिलीप कुमार ने अपनी फिल्म 'गोपी' में ‘घर द्वार’ फिल्म का प्रचार किया

श्रीमती पांडेय ने बताया कि ‘घर द्वार’ और दिलीप कुमार की ‘गोपी’ फिल्म लगभग साथ-साथ ही पूरी होनी थी और रिलीज की तारीख भी आस-पास की थी। ऐसे में दिलीप कुमार ने श्री पांडेय को एक दिन अपनी फिल्म ‘गोपी’ की शूटिंग में बुलवाया और एक दृश्य में रायपुर रेलवे स्टेशन का सेट बनवाया और एक डायलॉग खास तौर पर शामिल करवाया जिसमें रायपुर वाली मौसी का उल्लेख है। दिलीप कुमार ने यह सब इसलिए किया ताकि ‘गोपी’ फिल्म के इस दृश्य की वजह से ‘घर द्वार’ फिल्म के प्रमोशन में मदद मिल जाए। श्रीमती पांडेय ने बताया कि फिल्म 1971 में रायपुर के प्रभात टॉकीज में रिलीज हुई थी, जिसकी तारीख उन्हें याद नहीं है। इसके बाद 1984-85 तक यह फिल्म हर साल दो साल के अंतराल से रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, भिलाई, रायगढ़, कोरबा दूसरे शहरों की टॉकीजों में लगती रही। टूरिंग टॉकीजों के जरिए मेला आदि में भी इस फिल्म का प्रदर्शन बखूबी हुआ।
डिजिटल स्वरूप में रिलीज होगा छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘घर द्वार’

1971 से 1981 तक यह फिल्म छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र, यूपी और बिहार में रिलीज होती रही। आकाशवाणी से भी इसके गीत खूब बजे। लेकिन 1987 में निर्माता विजय पांडेय की हादसे में मौत के बाद यह सारा सिलसिला खत्म हो गया। स्व.विजय कुमार पांडेय के पुत्र जयप्रकाश पांडेय ने बताया कि पिताजी की मौत के बाद परिवार पूरी तरह टूट चुका था और किसी ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि घर में रखा एक मात्र प्रिंट खराब हो रहा है। इसके अलावा फिल्म का एक प्रिंट और नेगेटिव मुंबई में दादर स्थित रंजीत स्टूडियो के क्वालिटी लैब में था। लैब के मालिक बाबू भाई देसाई की मौत के बाद इसे बैंगलुरू के मनोहर शेट्टी ने खरीद लिया। इस दौर में लैब की पुरानी बिल्डिंग तोड़ कर नई बनाई गई। इस दौरान पांडेय परिवार का मुंबई में संपर्क नहीं रहा। ऐसे में फिल्म के नेगेटिव, पॉजिटिव और अन्य रश प्रिंट गुम हो गए। जयप्रकाश पांडेय के मुताबिक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद उन्होंने अपने भाई जयसंतोष पांडेय (अब दिवंगत) के साथ मिलकर प्रिंट को तलाशने की काफी कोशिश की। अंततः मुंबई में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘कहि देबे संदेस’ के निर्माता-निर्देशक मनु नायक के माध्यम से लैब की जानकारी मिली। लेकिन वहां पहुंचने पर निराशा ही हाथ लगी। इसके बाद उन्होंने पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय में भी प्रिंट की खोजबीन की लेकिन वहां इसका कोई रिकार्ड नहीं मिला। इसी दौरान मुंबई में पिताजी के पुराने दोस्तों से मुलाकात हुई। जिसमें एक सज्जन के जरिए दादर में ही मराठी फिल्मों के एक निजी संग्रहालय में इस फिल्म का प्रिंट मिला। श्री पांडेय के मुताबिक संपूर्ण 13 रील का यह प्रिंट मिल तो गया लेकिन यह बहुत ही खस्ता हाल में था। दूसरी दिक्कत यह थी कि जैसे ही रायपुर में कुछ लोगों को यह मालूम हुआ तो फिल्म और विडियो के कारोबार से जुड़ा एक कारोबारी उनसे हर हाल में प्रिंट का ‘सौदा’ करने दबाव डालने लगा। लेकिन उस वक्त कुछ शुभचिंतक सामने आए और हम लोगों ने दृढ़ता से मना कर दिया।
श्री पांडेय ने बताया कि इस प्रिंट को पुनर्जीवित करने मुंबई के तकनीशियनों से मार्गदर्शन लिया गया था। जिसमें एक विचार इस पॉजिटिव से नेगेटिव बनाकर फिर से सेल्युलाइड फार्म में पॉजिटिव तैयार कराने का था। लेकिन इस दिशा में काम शुरू होते तक डिजिटल का जमाना आ गया। ऐसे में अब नई प्रक्रिया के तहत पूरे सेल्युलाइड पॉजिटिव प्रिंट के हर फ्रेम की स्कैनिंग होगी। इसकी पिक्चर और साउंड क्वालिटी सुधारी जाएगी। उसके बाद उसका एक मूल नेगेटिव प्रिंट बनाया जाएगा। जिसके बाद डिजिटल फार्म में सैटेलाइट के जरिए यह फिल्म रिलीज की जाएगी।

श्री पांडेय ने बताया कि यह संयोग ही है कि जिस क्वालिटी लैब से फिल्म का प्रिंट नष्ट हुआ था उसी के नए मालिक की लैब से इस फिल्म को पुनर्जीवन मिलेगा। श्री पांडेय के मुताबिक इन दिनों मुंबई में श्वेत श्याम फिल्मों को डिजिटाइज करने का काम काफी जोरों पर चल रहा है, इसलिए छह माह की कोशिशों के बाद उनकी फिल्म का नंबर दिसंबर के दूसरे सप्ताह में आया है। सारी प्रक्रिया में 10 से 12 दिन का वक्त लगेगा। इसके बाद वह 23 दिसंबर 2010 को स्व.श्री विजय कुमार पांडेय की जयंती के अवसर पर फिल्म को डिजिटल स्वरूप में रिलीज करने की तैयारी है।

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