बस्तर आदिवासी : लोग एवं परम्परा
छत्तीसगढ़ के बस्तर की आदिवासी परम्पराये बहुत अनोखी और अपने आप में एक अलग ही पहचान बनाये हुए है। बस्तर की कुछ परम्पराएं तो आपको एक रहस्यमय संसार में पंहुचा देती हैं। वह अचंभित किए बगैर नहीं छोड़ती। वनवासियों के तौर तरीके हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि चांद पर पहुंच चुकी इस दुनिया में और भी बहुत कुछ है, जो सदियों पुराना है, अपने उसी मौलिक रूप में जीवित है।
दशहरा
बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक दशहरे को देशभर में उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन भगवान राम ने लंकापति रावण का वध कर देवी सीता को उसके बंधन से मुक्त किया था। इस दिन रावण का पुतला जलाकार लोग जश्न मनाते हैं। लेकिन भारत में एक जगह ऐसी है जहां 75 दिनों तक दशहरा मनाया जाता है लेकिन रावण नहीं जलाया जाता है। यह अनूठा दशहरा छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके बस्तर में मनाया जाता है और 'बस्तर दशहरा' के नाम से चर्चित है। इस दशहरे की ख्याति इतनी अधिक है कि देश के अलग-अलग हिस्सों के साथ-साथ विदेशों से भी सैलानी इसे देखने आते हैं। बस्तर दशहरे की शुरुआत श्रावण (सावन) के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती है। इस दिन रथ बनाने के लिए जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है. इस रस्म को पाट जात्रा कहा जाता है। यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है। इस रस्म में बस्तर के महाराज दरबार लगाकार जनता की समस्याएं सुनते हैं। यह त्योहार देश का सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है।
मृतक स्तंभ
मिस्त्र के पिरामिड़ तो पूरी दुनिया का ध्यान खींचते हैं, दुनिया के आठ आश्चर्य में शामिल हैं। लेकिन बस्तर में भी कुछ कम अजूबे नहीं है। यहां भी एक ऐसी ही अनोखी परंपरा है, जिसमें परिजन के मरने के बाद उसका स्मारक बनाया जाता है। भले ही वह मिस्त्र जैसा भव्य न हो, लेकिन अनोखा जरूर होता है। इस परंपरा को मृतक स्तंभ के नाम से जाना जाता है। दक्षिण बस्तर में मारिया और मुरिया जनजाति में मृतक स्तंभ बनाए बनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है। स्थानीय भाषा में इन्हें "गुड़ी" कहा जाता है। प्राचीन काल में जनजातियों में पूर्वजों को जहां दफनाया जाता था वहां 6 से 7 फीट ऊंचा एक चौड़ा तथा नुकीला पत्थर रख दिया जाता था। पत्थर दूर पहाड़ी से लाए जाते थे और इन्हें लाने में गांव के अन्य लोग मदद करते थे।
घोटुल
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के माड़िया जाति में परंपरा घोटुल को मनाया जाता है, घोटुल में आने वाले लड़के-लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट होती है। घोटुल को सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है। घोटुल गांव के किनारे बनी एक मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है।
दशहरा
बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक दशहरे को देशभर में उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन भगवान राम ने लंकापति रावण का वध कर देवी सीता को उसके बंधन से मुक्त किया था। इस दिन रावण का पुतला जलाकार लोग जश्न मनाते हैं। लेकिन भारत में एक जगह ऐसी है जहां 75 दिनों तक दशहरा मनाया जाता है लेकिन रावण नहीं जलाया जाता है। यह अनूठा दशहरा छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके बस्तर में मनाया जाता है और 'बस्तर दशहरा' के नाम से चर्चित है। इस दशहरे की ख्याति इतनी अधिक है कि देश के अलग-अलग हिस्सों के साथ-साथ विदेशों से भी सैलानी इसे देखने आते हैं। बस्तर दशहरे की शुरुआत श्रावण (सावन) के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती है। इस दिन रथ बनाने के लिए जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है. इस रस्म को पाट जात्रा कहा जाता है। यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है। इस रस्म में बस्तर के महाराज दरबार लगाकार जनता की समस्याएं सुनते हैं। यह त्योहार देश का सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है।
मृतक स्तंभ
मिस्त्र के पिरामिड़ तो पूरी दुनिया का ध्यान खींचते हैं, दुनिया के आठ आश्चर्य में शामिल हैं। लेकिन बस्तर में भी कुछ कम अजूबे नहीं है। यहां भी एक ऐसी ही अनोखी परंपरा है, जिसमें परिजन के मरने के बाद उसका स्मारक बनाया जाता है। भले ही वह मिस्त्र जैसा भव्य न हो, लेकिन अनोखा जरूर होता है। इस परंपरा को मृतक स्तंभ के नाम से जाना जाता है। दक्षिण बस्तर में मारिया और मुरिया जनजाति में मृतक स्तंभ बनाए बनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है। स्थानीय भाषा में इन्हें "गुड़ी" कहा जाता है। प्राचीन काल में जनजातियों में पूर्वजों को जहां दफनाया जाता था वहां 6 से 7 फीट ऊंचा एक चौड़ा तथा नुकीला पत्थर रख दिया जाता था। पत्थर दूर पहाड़ी से लाए जाते थे और इन्हें लाने में गांव के अन्य लोग मदद करते थे।
घोटुल
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के माड़िया जाति में परंपरा घोटुल को मनाया जाता है, घोटुल में आने वाले लड़के-लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट होती है। घोटुल को सामाजिक स्वीकृति भी मिली हुई है। घोटुल गांव के किनारे बनी एक मिट्टी की झोपड़ी होती है। कई बार घोटुल में दीवारों की जगह खुला मण्डप होता है।
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